"प्रभात खबर", पटना की एक सम्पादिका दक्षा जी ने महिलाओं पर अत्याचारों के खिलाफ एक मुहिम चला रखा है- "कहाँ जा रहा है समाज".
मनेर की चंचल और सोनम बहनों पर तेजाब हमले की कहानी पढ़ने के बाद मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी थी कि उन बहनों को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए.
पता चला, दक्षा जी मेरे बारे में भी जानकारी रखती हैं. उन्होंने कहा कि वे मेरी कहानी को भी प्रकाशित करेंगी- ताकि तेजाब हमले की शिकार लड़कियों का हौसला थोड़ा बढ़े.
और आज के 'प्रभात खबर' में उन्होंने इसे प्रकाशित भी किया भी.
(मैंने अपने इस ब्लॉग में अपनी पूरी कहानी लिखने की सोची थी- वह तो हो नहीं पाया, मगर इस अखबार की कहानी के माध्यम से उसका एक हिस्सा पूरा हो गया.)
यह अगस्त 1987 की बात है. मैं यूपी में
मेरठ के पास गढ़ मुक्तेश्वर में रहती थी और मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी कर रही
थी. मेरे घर के पास ही एक मकान था, जिसमें दो साधु व एक पंजाबी लड़का रहता था. आते-जाते
वे साधु मुझे छेड़ा करते थे. वे उस लड़के को मुझसे बात करने के लिए उकसाते थे, जिसकी
वजह से वह लड़का मुझे रास्ते में रोक-रोक कर तंग करता. वह अपनी बिल्डिंग से कई बार
चिट्ठियां फेंका करता, लेकिन मैं बिना उसे देखे, पढे.
ही निकल जाया करती.
एक दिन जब घर पर सिर्फ मम्मी और मैं थे. वह अंदर
घुस आया. उसने घर के एक कोने में मुझे सटा कर हाथों से घेर लिया और कहा, मुझसे
शादी कर लो, वरना वो हालत कर दूंगा कि खुद को पहचान नहीं पाओगी.
क्योंकि मैं बहुत बोल्ड थी. मैंने उस वक्त जो चप्पल पहनी थी, उसी से
लड़के की खूब धुनाई कर दी. वह गुस्से से भनभनाता हुआ चला गया. वह रात को अपने
दोस्तों के साथ आया और हमारा दरवाजा जोर-जोर से पीटने लगा. हमनें अंदर से ताला लगा
रखा था. जैसे-तैसे वह रात काटी. 24 अगस्त को अचानक हमारे घर की बिजली चली गयी. अगस्त
का महीना था और खूब गरमी थी. पापा ने कहा, अंदर तो गरमी से मर
जायेंगे, चलो बाहर चारपाई डाल कर सो जाते हैं.
हम सब चार चारपाई बिछा कर सो गये. हमारे आंगन में
ही एक बड़ा-सा बगीचा था. वह इतना घना था कि कोई अगर वहां हो, तो नजर
न आये. (घटना के बाद तहकीकात में पता चला कि पेड़ के नीचे कई सारे सिगरेट के टुकड़े
व हाथ पंखे थे, जो साबित कर रहे थे कि उन्होंने वहां हमारे सोने का
इंतजार किया और बिजली भी उन्होंने ही काटी या कटवायी थी) रात के करीब एक बजे कोई
मेरी चारपाई के नीचे से बाहर आया और उसने मुझ पर बोतल भर कर तेजाब डाल दिया. मैं
चिल्लायी. मैंने उन्हें पकड़ने की कोशिश की, तो वे हाथ से फिसल गये.
उन्होंने शरीर पर कपड़े नहीं पहने थे. बदन पर तेल मल रखा था. वे तीनों लड़के भाग
गये.
तभी पुलिस घर पर आ गयी. हमें आश्चर्य हुआ कि पुलिस
को किसने खबर दी, लेकिन यह सब मिली-भगत थी. पुलिसवालों ने मेरे पापा
को और मुझे बाइक पर बिठाया और बीच रास्ते में छोड़ दिया, यह कह
कर कि यहां से जो भी ट्रक गुजरेगा, उस में बैठ कर अस्पताल चले जाना. आधे जले हुए शरीर
को लिए अपने पापा के साथ मैं घंटों खड़ी रही.
आखिरकार एक ट्रकवाले ने हमें अस्पताल छोड़ा. वहां
डॉक्टर ने मुझ पर पानी जल्दी-जल्दी नहीं डाला. पापा को कहा कि बाहर नल से पानी
भर-भर कर लाओ. मेरे पापा, ग्लूकोज की बॉटल में पानी भर-भर कर लाते और डॉक्टर
वह पानी बहुत धीरे-धीरे मुझ पर डालता. जब-जब पानी मुझ पर गिरता मैं चीख उठती.
मैं आठ महीने बिस्तर पर ही पड़ी रही. दो संस्थाएं
मेरी मदद के लिए आयी. मेरा एम्स में एडमिशन करवाया. आठ ऑपरेशन हुए, लेकिन
कोई सक्सेसफुल नहीं रहा. वे लोग मेरी आंख, पलक, होंठ
नहीं बचा पाये. आंख तो मेरी पहले ही गल कर गिर चुकी थी. मेरे कान, नाक भी
नहीं थे और गला व हाथ चिपक गये थे. 1991 तक मेरा इलाज चला. अभी भी मेरी एक आंख, कान
नहीं है. मैं बालों और दुपट्टे से अपना चेहरे का एक हिस्सा ढक कर रखती हूं या काला
चश्मा लगाती हूं.
इलाज के बाद जब मैं चलने-फिरने लायक हुई, तो
मैंने सोशल वर्क शुरू किया. अकसर मुझ पर खबरें न्यूज पेपर में छपती थी. 1995 में
मेरा इंटरव्यू ग्यालियर में रह रहे मेरे पति (जयदीप शेखर) ने पढ़ा, जो एयर
फोर्स में थे. उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा, तो पिताजी ने कहा, मेरी
बेटी में कई कमियां है. आप उसे ठीक से देख लें. बाद में मत कहियेगा. उन्होंने जवाब
दिया कि मुझे इस बारे में कुछ नही सुनना है. मेरे ससुरालवाले ने भी मुझे
अपना लिया. अब मेरे पति बैंक में जॉब करते हैं और मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हूं.
मेरे एक 16 साल की बेटा भी है.